बदली

Author: 
Vivek Srivastava

Vivek Shrivastava was born and brought up in Jaipur. He is a Science graduate but chose to do his masters in Economics. He has a Diploma in Functional Urdu from the National Council for Promotion of Urdu Language (NCPUL). At present he's in the third year of his law degree.

Vivek joined the Central Board of Excise & Customs and is presently posted as Superintendent GST. His expertise lies in enforcement of laws relating to money laundering and foreign exchange. He is a visiting faculty for Prevention of Money Laundering Act (PMLA) and Foreign Exchange Management Act (FEMA) at the Rajasthan Police Academy and the Central Detective Training Institute, Jaipur.

Vivek is a prolific writer of poems and stories, many of which have already been published in various journals. He’s associated with several poetic forums. He presented his story ‘Tyakta’ at World Hindi Secretariat at Mauritius which won the third prize of $100 and numerous other felicitations.

Vivek's flair for writing and speaking is well noted and he often anchors high-end functions. He currently resides in Jaipur with his parents, his wife, Rashi, and children, Rudransh and Shivansh.

 

बदली

 

धनिया एक अतिसाधारण आदमी था उसकी पत्नी जीरा भी वेद विहित विधि से जीवनयापन करने वाली स्त्री थी।बड़ा बेटा खिलाड़ीराम और छोटा बेटा डमरू था।घर में बूढ़ी  विधवा माँ, बाल विधवा  बूआ एक बैल गाड़ी और एक पुश्तैनी झोंपड़ी, ये उसकी कुल जमा पूँजी थी।

 

राजा का राज था,वो भी राज्य कर्मचारी था। उसने गाँव में ही रह कर राज्य की सेवा करने की गुहार लगाई ताकि उसके परिवार की ज़िम्मेदारी भी वो उठा सके।राजस्व संकलन में वो सबसे निम्न स्तर का कर्मचारी था।ईमानदारी से काम करता । कोई उसके कामकी शिकायत कभी नहीं करता था। ख़ाली समय में राम भजन करता और बड़े अच्छे भजन ख़ुद लिखता भी था। कभी गाँव में या आस-पास  कोई जागरण होता तो उसे बुलाया जाता ।

 

उसकी पत्नी भी बड़ी मेहनती थी। दिन भर गोबर के उपले थापती और ख़ुद बैल गाड़ी हाँक कर आस-पास के गाँव में बेच आती। सरस्वती की भी उस पर असीम अनुकम्पा थी, जो ख़ाली समय बचता उसमें गाँव के बच्चों को और हिंदी और हिसाब (गणित) पढ़ाती, घर के अहाते में ।इसके बदले में कोई बच्चा बथुआ ले आता, कोई बाजरा,कभी कोई छाछ ले आता,कोईमौसम की सब्ज़ियाँ । आराम से घर गृहस्थी का गुज़ारा चल जाता था।संतोषीपन पूरे परिवार में ही था। यों तो जीवन की आवश्यकताओं में कमी कब होती है, पर सभी रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पीव देख पराई चूपड़ीमतललचावे जीव  को चरितार्थ करते थे ।

 

जहाँ धनिया अपने गाँव  में ही पदस्थापित रहना चाहता था, वहीं अन्य राजस्व कर्मचारी अपने ही गाँव में नहीं रहना चाहते थे। कारण कुछ ये था कि शहरी क्षेत्र में कर संग्रह अधिक होता था,राजस्व अधिकारियों की शक्तियाँ  थी भी  बहुत, सो सेठ-साहूकार उनकी अच्छी ख़ातिर करते थे, उनके रसूख़ बनते थे औरवो उन्हेंव्यक्तिगत भेंट भी अच्छी देते थे।ऐसा कुछ अपने गाँव में संभव नहीं था।व्यक्तिगत भेंट के बलबूते पर कुछ लोगों ने विभिन्न जगहों पर महँगी कोठियाँ बनवा  ली थीं, घोड़े और  बग्घियाँ ख़रीद लीं, बड़े-बड़े भूखंड, खेत-ख़लिहान ख़रीद लिये यद्यपि वसीके (दस्तावेज़) में नाम तो उनका नहीं होता था, पर थे वो उन्हीं के। राजदंड के भय से कर्मचारी क्या-क्या जुगत लगाता है, प्रभु जाने। उनकी  घरवालियाँ भी गाँव से दूर रहने में अधिक आज़ादी महसूस करती थीं, क्योंकि वहाँन तो किसी से घूँघट-पल्ला करना पड़ता था, न  बूढ़े सास-ससुर की टोकाटाकी थी और ना ही उनकी देखभाल की कोई ज़िम्मेदारी, न मवेशियों के सानी-पानी करने का झंझट,बस,आरामही आराम ।रुतबा, पैसा, सुविधा, सैर-सपाटा सब कुछ  तो वहीं था शहर में, फिर क्यों रहा जाये गाँव के बंधन  और चिक-चिक में ?पुश्तैनी जायदाद तो कहीं जाने वाली नहीं। गाँव  में  पड़े बूढ़े माँ-बाप उन्हें देखने के लिये बेचारे होली-दिवाली की राह तकते थे ।

 


typical Indian villages scene 
 

इधर धनिया और जीरा मेहनत से काम करते हुए घर के बूढ़े माता-पिता की देखभाल करते रहे।कच्ची  झोंपड़ी अब पक्की हो गई थी। पार साल पिताजी जाते रहे। कुरीतियों से दूर पिताजी मृत्युभोज के लिए मना कर गये थे, फिर भी लोक लाज के बीच धनिया ने एक निर्धन द्विज को तो जिमाया ही, यथाशक्ति भेंट भी दी। आस पास की वनिताएँ (स्त्रियाँ) मुँह बिचका कर हँसती रहीं।

 

बेचारा चार गाँव को जिमाता भी कहाँ से? 

 

बरसी पर गाँव के कुएँकी मुँडेर की मरम्मत  पिताजी के  निमित्त करवा दी और गौशाला में गायों को चारा डलवा दिया। लोगों ने बहुत बातें बनाईं । क्या सदियों की परम्पराओं को यों छोड़ना उचितहै !

 

सब उसे कंजूस कहते, ईमानदारी पर तानाकशी करते । बिरादरी में जीरा को बिना अच्छे गहनों के अपमान भी सहना पड़ता । धनिया को ज़माने की रीत के अनुसार चलने की सीख देने की बातेंकही जातीं ।

 

जैसे-जैसे वक़्त गुज़रा, तो अब लोगों की उमर भी बढ़ गई, शरीर थकने लगा। जो कर्मचारी अब तक गाँव से बाहर रहना पसंद करते थे उन्हें भी गाँव अब भाने लगा था। कारण कि सेठ साहूकार भी अब सयाने हो गये थे, पहले जैसी आवभगत अब नहीं करते थे । अब व्यक्तिगत  भेंट कम हो गई थी और कुछ कर्मचारियों की शिकायत पर राज्य ने उन्हें कठोर दंड भी दिया था। कुछ की नौकरी जाती रही, कुछ को  कारावास में भी चक्की पीसनी पड़ी। इस सबके कारण लोगों में भय व्याप्त हो गया और अनचाही ईमानदारी उनमें आ गई थी ।

 

कौटिल्य ने  राजस्व से जुड़े राज्यकर्मचारियों के भ्रष्टाचार की रोकथाम हेतु उनकी बदली किये जाने  की व्यवस्था दी है।

 

अब लोगों ने धनिया के उसी गाँव में लंबे समय से  नियुक्त रहने  पर उँगलियाँ उठाईं।उसका रिकॉर्ड भी तलब हुआ। सिपहसालार ने देखा। राजस्व-संग्रह में कोई चूक नहीं, बेदाग़ नौकरी । हाँ दरबारी काम में अवश्य दुर्बल था, उसका कारण ये था कि दरबारी काम में लगे कर्मचारी किसी अन्य को इस काम में  आगे आने ही नहीं देते थे, सो चाहते  हुए भी बेचारे को इस विधा में आगे बढ़ने  का मौक़ा ही नहीं मिला, वो काम में ही पिला रहा इसलिये इस धरा पर उसका कोई सरपरस्त नहीं था, सिवाय रामभक्त हनुमान जी के । हालांकि कई साल अन्य दूरदराज़के दुर्गम निर्जन इलाक़े में वो भी नियुक्त रहा था और उसने ऊँट पररेगिस्तानकीख़ाक़ छानी थी पर जबसेउसके  पिताजी को  दिमाग़ी बीमारी हुई तब से उसने उनकी सेवा के निमित्त गाँव में ही पदस्थापित किये जाने की प्रार्थना की थी,लोग तो पहले ही अपने गाँव में रहना नहीं चाहते थे इसलिये वहाँ नियुक्ति की कोई मारामारी नहीं थी,और उसके अच्छे काम और वफ़ादारी के कारण भी उसकीप्रार्थना स्वीकार होगई । उसे लोग ज़माने के अनुसार नहीं चलने वाला समझते थे, उस पर फ़ब्तियाँ कसते थे ।

 

पर अब बहुत से दावेदार उसकी जड़ें खोदने लगे, बात राजा जी तक भी पहुँची। कई नियमों की दुहाई दी गई।नज़ीरें पेश की गईं।धनिया दुःखी हो गया। गाँव में नियुक्त रहने का  उसका  कोई दीगर उद्देश्य नहीं था,  सिवाय बूढ़े माता-पिता की सेवा के।पिता का साया तो उठ ही गया था, उसकी कामना थी  कि  बस माँ को भी गंगा जी पहुँचा आये, इतनी सी मौहलत उसे मिल जाये। बच्चे तो समय आने पर पैरों पर खड़े हो ही जायेंगे ।

 

हालात अब बहुत बदल गये थे। काम की तो कोई वक़त थी ही नहीं । हर तरफ़ सिफ़ारिश, भाई-भतीजावाद और लक्ष्मी का चलन था। धनिया की कौन सुनता ?धनिया सोच में गुमसुम रहता, दिन भर उधेड़बुन में लगा रहता। तरह-तरह की आशंकाएँ उसे घेरतीं।बुरे सपने आते। वो गाँव से बाहर चला गया और रातबिरात माँ की तबियत बिगड़ी तो उसे कौन सँभालेगा ? वो तो उसकी हर साँस से वाक़िफ़ है। वैद जी से ज़्यादा ज्ञान  उसे हो गया है उसके मर्ज़ और नुस्ख़ों का। धनिया को चिंता के कारण बीमारियाँभी घेरने लगीं।अभी खिलाड़ीराम और डमरू भी अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए थे,  सो राज्यसेवा छोड़ी भी नहीं जा सकती थी। और कोई हुनर धनिया को आता भी नहीं था।बूआ भी अब वृद्ध हो  गई थी, उसका स्वास्थ्य भी ऊँचा-नीचा ही रहता। बदन भारी था सो चलने-फिरने में भी परेशानी होने लगी थी। उसकी चिड़चिड़ाहट झेल कर जीरा भी कुंठित हो गई थी।

 

तभीअचानक साँस की एक महामारी ने घेरा। गाँव देहात के लोग चट-पट मरने लगे।ग़रीब- अमीर किसी को इसने नहीं छोड़ा। हाँ ग़रीब  कुछ जल्दी मरते, अमीर कुछ देर से।वैद,हक़ीम सब हार गये । बीमारी का इलाज करते में वो ख़ुद भी काल के गाल में समा गये।बूढ़े तो सूखे पत्तों की तरह झड़ने लगे, कई अधेड़ और  युवा भी चले गये। हवा ज़हरीली सी हो गई । प्राणवायु के लिये लोग तड़पने लगे। धनिया अपनी माँ को बचाने की जुगत में लगा रहता। जीरा भी उसकी चपेट में आ चुकी थी, बड़ीमुश्किल से उसकी जान बची ।

 

उधर बदली की तलवार भी उसकी गर्दन पर लटक रही थी। गाँव में कार्यालय में हीपथवारी माँ का स्थान था। वो सुबह शाम ढोक देता और मन ही मन गाँव में ही बनाए रखने  की प्रार्थना करता। खूँट वाले बालाजी के भी गुड़-चने चढ़ाता। 

 

जीरा उसे ढाँढस बँधाती। "मैं बैल गाड़ी हाँक लेती हूँ। माँ को रात बिरातबैद जी के मैं ले जाऊँगी, आप जी छोटा मत किया करो। क़िस्मत में जहाँ का अन्न जल लिखा होगा,  जाना पड़ेगा ।विधि का विधान है, सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता, कुछ ईश्वर में भरोसा रक्खो। मैंने संतोषी माता के 16 शुक्रवार के व्रत  भी बोल दिये हैं । प्रभु की इच्छा  बिना कुछ नहीं होता । बदली होना, न होना भी उसकी इच्छा के  ही आधीन है ।” पर धनिया का मनबदली को लेकर विचलित ही रहता।

 

बीमारी के हालात ऐसे, कि आदमी,आदमी को देख कर डरता । 4 लोग उठाने को नहीं मिलते थे, अंतिम संस्कार के लिये भी लम्बी क़तार। श्मशानों में लकड़ियाँ नहीं, क़ब्रिस्तानों में जगह का टोटा। इतनी बेक़द्री और  आदमी का स्तर इतना गिर गया कि यहाँ पर भी रिश्वत चल रही थी !!!

 

धनिया को याद आया कि उसके पिताजी ने बताया था कि  सालों पहले  उसकी दादी भी युवावस्था में ही पिताजी को 11 महीने का छोड़ एक महामारी में ही चली गई थी । दादी को गंगाजी में जल समाधि दी गई थी। पिताजी उनके मामा के घर पले।शायद तब भी ऐसा ही मंज़र रहा होगा। लोग कहते हैं हर सौ साल में महामारी आती है।

 

जप-तप, टोने-टोटके, जंतर-मंतर,  सब बेअसर।  किसी से राहत नहीं मिली।क़ुदरत का क़हर ऐसा बरपा कि इंसान बेबस हो गया। घर से निकलना मौत को बुलावा देना लगता। इधर इंसान घरों में क़ैद, उधर नदी, झरने, ताल-तलैया सब साफ़ हो गए, निर्मल जल बहने लगा । वन्य और दूसरे जीव जंतु  स्वच्छंद विचरण करने लगे।सब ईश्वर की महिमा  है।

 

कोई कहता कि ये बीमारी विदेश से आई है, कोई कहता दुनिया पर राज करने को चीन देश के राजा ने मूठ (तांत्रिक अस्त्र) फिकवाई है।लोग कहते कि हमारे पूर्वज बहुत समझदार थे, उनकी कोई बात ग़लत नहीं थी,तभी तो हमारे पूर्वज समुद्र पार करने को मना करते थे। रोज़ नहाते थे। हमारे मसाले सब बीमारियों से लड़नेमें कारगर हैं, हमें कुछ नहीं होगा।

 

जितने मुँह, उतनी बातें।

 

जनता को जागरूक करने के लिये सूबेदार जी की तरफ़ से  डुग्गियाँ पिटवाई जा रही थीं। काढ़ा बाँटा जा रहा था । पास-पड़ोस के शत्रु राज्य ख़ुश भी हो रहे थे। कुछ इमदाद भी भेज रहे थे।ऐसा वक़्त न देखा न सुना। बड़े- बड़े हाकिम-हुक्मरान एक दूसरे पर मौतों और अव्यवस्था की ज़िम्मेदारी डाल रहे थे। बीमारी से निबटने का श्रेय भी ले रहे थे ।बीमारी से निपटने को लेकर दरबारियों में खींचतान  भी बहुत चल रही थी। चारों ओर हाहाकार मचा था। कुछ लोग इस अवसर  का लाभ उठा कर चाँदी काट रहे थे। जमाख़ोरों की भी बन  आई थी, औषधियों तक की कालाबाज़ारी हो रही थी ।चहुँओरत्राहिमाम मचा हुआ था। भगवान ही मलिक था ।

 

इसी बीच, बीमारी से बेफ़िक़र घर-घरपापड़, मँगौड़ियाँ  बन  रहे  थे, अचार डाले जा रहे थे ।बीमारी के इलाज के लिये भूले बिसरे नुस्ख़ों से कई तरह के चूरन-चटनी बनाये जा रहे थे,काढ़े बना कर लोग पी रहे थे। हर जना चिकित्सक बन गया था। कई नीम हक़ीम जो मक्खियाँ मारा करते रहते थे, उनकी भी  बन आई थी। पानी में सादा हल्दी डाल कर औषधि के रूप में  महँगा बेचने लगे। लोग महामारी के नाम पर  दान माँगने लगे। कौन जाने दान जा कहाँ रहा था, क्योंकि हालात में तो तनिक भी सुधार होता न दिखता था।

 

 


villge well scene 

कुछ लोग सारी अव्यवस्था का ठीकरा राजा के सिर पर फोड़ रहे थे, कहते थे किसब उसका ही किया-धरा है।कुछ कहते राजा के तपोबल से ही राज्य टिका है, ऐसे हालात में जब लगता है कि ईश्वर ही नाराज़  है, तब राजा बिचारा क्या करे? किसी के समझ में तो कुछ आता नहीं था बस हर जना ज्ञानी बना जा रहा था और अपने उत्तरदायित्व को दूसरे पर डाल रहा था।

 

उधर घरों में क़ैद रहने से लोग ख़ाली थे सो कई स्त्रियाँ उम्मीद से भी हो गईं थीं। मनोरंजन और अवसाद से उबरने का उपाय भी ज़रूरी था, बाक़ी सब सैर-सपाटे, मेले-ठेले तो बंद थे।हाँ, मदिरालय ज़रूर खुले थे क्योंकि इससे राज्य को राजस्व बहुत मिलता था, सो ऐसा माना जाता था कि यहाँ जितनी ज़्यादा भीड़ होगी उतना ही सरकारी ख़ज़ाना भरेगा और उतना  ही अच्छा होगा। बीमारी से तो वैसे भी लोग मर ही रहे थे, थोड़े और सही।

 

बहुत से घरों में फूल खिले।कई बड़ी उमर के युगलों के यहाँ भी बधाई गान गूँजे।सालों से सास से  बाँझ का  ताने सुनने वाली  कई वधुएँ भी अब सास के मन को भाने लगीं। ऐसे में मन चलता भी बहुत है, घरों में उनके मनपसंद व्यंजन बनने लगे। पुरुष भी ख़ुशी से  मूछों पर ताव देते थे।

 

इस बीच हुआ ये कि बीमारी की विकरालता को देख कर सारा राजकीयअमला बीमारी का सामना करने में लगा दिया गया,बदली की बात आई-गई हो गई । धनिया ने चैन की साँस ली और  मन ही मन महामारी के ख़त्म होने की प्रार्थना भी करने लगा। जीरा नेबदली की बात टल जाने को प्रभु की कृपा मान व्रत की तैयारी शुरू कर दी ।बदली की बदली बिना बरसे ही महामारी की भेंट चढ़ गई थी ।

                                                    

 

Comments

Harishankar parsai ji ki ka bhola ram ka jeev yaad aa gaya

बहुत ही अच्छी और भावपूर्ण रचना प्रस्तुत की है। यह रचना समसामयिक मुद्दों पर भी है। लेखक को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

Superb!!!!!!

यह कहानी आज के समय के हालात में बिल्कुल सटीक है। इस कहानी में आज के तनाव पूर्ण वातावरण में तनाव से मुक्त होने के तथा हसी खुशी जीवन जीने के बहुत ही सरल उपाय बताए गए हैं। ऐसी रचनाओं से समाज का वातावरण कुछ हद तक भय मुक्त हो सकता है, ऐसा मेरा मानना है। विवेक जी को इस तरह की रचनाओं के लिए बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद।

‘Badli’ Beautifully penned ! Detailed description of situations is commendable. The writer has described human psychology in a very expressive manner. The whole write up was so good from beginning till end , I felt like watching a short film. His writing reminded me of my all time favourite writer Mahadevi Verma. Congratulations Mr. Vivek Srivastava!

Nice story based on current situation. Good flow in narration

True picture of honest employees in present scenario

True picture of honest employees in present scenario

वाह! अति सुन्दर!! कहानी आज के हालात का सटीक चित्रण करती है। शैली ने मुंशी प्रेमचंद की सहसा याद दिला दी।

विश्वास नहीं होता हमारे साथ ही रोज़ उठने बैठने वाला व्यक्ति संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की दक्ष लेखनी का धनी है।हम गर्व से फूले नहीं समा रहे विवेकजी!!

आपको बहुत बहुत बधाई!!

सुन्दर कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ विवेक जी!

सुन्दर कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ विवेक जी!

सभी बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण रचना है। वर्तमान परिदृश्य एवं परिस्थितियों से बिल्कुल सुसंगत है। ऐसा लगता है कि यह रचना समसामयिक अधिकांश राजस्व अधिकारियों के व्यक्तिगत पारिवारिक एवं राजकीय जीवन पर बिल्कुल उचित बैठती है।

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