फिर भी माँ, बहुत अच्छी लगती है।

Author: 
Vivek Srivastava

Vivek Shrivastava was born and brought up in Jaipur. He is a Science graduate but chose to do his masters in Economics. He has a Diploma in  Urdu language from the National Council for Promotion of Urdu Language (NCPUL). At present, and has completed his LLB.

Vivek joined the Central Board of Excise & Customs and is presently posted as Superintendent GST. His expertise lies in the enforcement of laws relating to money laundering and foreign exchange. He is a visiting faculty for the Prevention of Money Laundering Act (PMLA) and Foreign Exchange Management Act (FEMA) at the Rajasthan Police Academy and the Central Detective Training Institute, Jaipur.

Vivek is a prolific writer of poems and stories, many of which have already been published in various journals. He’s associated with several poetic forums. He presented his story ‘Tyakta’ at World Hindi Secretariat at Mauritius which won the third prize of $100 and numerous other felicitations.. 

His play 'Lock Down' has been published by World Hindi Secretariat in their yearly magazine 'Vishv Sahitya 2020'. 
His play 'Byahta' has been telecast from Akashvani Jaipur. 

Vivek's flair for writing and speaking is well noted and he often anchors high-end functions. He currently resides in Jaipur with his parents, his wife, Rashi, and children, Rudransh and Shivansh.

 फिर भी  माँ बहुत अच्छी लगती है

माँ अब लेटी रहती ज़्यादातर

बोलती नहीं ज़्यादा

सुनती भी है ऊँचा

झल्ला भी जाती है

फिर भी माँ, बहुत अच्छी लगती है

बाबूजी के जाने के बाद

नहीं भरती माँग

रखती है सूना माथा

चेहरे से अब उदास सी लगती है

फिर भी  माँ बहुत अच्छी लगती है।

जागती है रात में अक़्सर

खुल जाती है आँख मेरी उसके  खाँसने पर

नहीं सो पाता मैं भी ठीक से रात भर

रहता हूँ चिंतित उसके दिन-दिन ढलते  स्वास्थ्य  पर

माँ अब दवाइयों के सहारे ही चलती है

फिर भी माँ बहुत अच्छी लगती है।

 जड़ देती है चुम्बन  मेरे गाल पे अक़्सर

फेर देती है हाथ सर पे रोज़ ही

पहचान जाती है चिंता मेरे चेहरे की

और मेरे लिये रोटी बनाने को रहती है तत्पर अब भी

 दे देती है सूचनाएं, धीरे से मेरे कान में और कर देती है  शिकायतें ज़माने भर की

माँ की परिधि  हो गई है बहुत सीमित सी

कभी-कभी सब से नाराज़ सी लगती है 

 फिर भी  माँ बहुत अच्छी लगती है

करती है इन्तज़ार  आने का मेरे

जैसे बचपन में करता था इंतज़ार मैं आने का उसके

सो जाती है कभी भी बच्चों की तरह से

 देखते हुए कोई धारावाहिक बिना खाये पिये

नहीं समझती कि दिन है या रात

भूल जाती है कि घर में है या बाहर

समझाओ कभी तो ग़ुस्सा करती है

फिर भी माँ बहुत अच्छी लगती है

ले लेती है दवाई ख़ुद ही समझदारी से

समझती है दवाइयाँ, टिकिया के रंग से

ले लेती है कोई दवाई ज़्यादा अगर ग़लती से

घबराती है फिर कि बिगड़ी जो कहीं तबीयत  तो होगी परेशानी मुझे

ले लेती है कोई भी दवाई मेरे बताने से

करती है विश्वास मुझ पर ज़्यादा डॉक्टर से

कर देती है दस्तख़त कहीं भी, मेरे कहने से

कभी-कभी कोई एक ही बात  बार-बार कहती है

फिर भी  माँ बहुत अच्छी लगती है।

हो गई है  माँ बड़ी मज़ेदार सी

कुछ का कुछ है समझ लेती

समझाऊँ कुछ अंग्रेज़ी की बात जो मैं हिंदी में कभी 

तो  होती है नाराज़ कि क्या मैं अंग्रेज़ी नहीं समझती ??

अपने को ही माँ सही सदा समझती है

फिर भी माँ बहुत अच्छी लगती है।

सुनता हूँ  बड़ाई अन्य सहोदरों की

 और

 खाता हूँ डाँट मैं जोड़े से  उसकी

आने वाली है  कुछ समय में  बहू  मेरे  घर भी

कितना सौभाग्यशाली हूँ मैं

कि पाता हूँ सानिध्य माँ का  मैं अब भी

रहती है ख़ुश नातिन नाती पोतों पड़पोतों से

अपने बच्चों पे भले ही ग़ुस्सा करती है

फिर भी  माँ बहुत अच्छी लगती है

देती है आशीर्वाद वो सभी को नम आँखों से

परे हो गई है वो निंदा स्तुति से

जिव्हा अब उसकी किसी को नहीं बख़्शती है

फिर भी माँ   बहुत अच्छी लगती है।

ज़रूरत है माँ को अब बहुत देखभाल की

करता  रहता हूँ  चिंता कि न बिगड़े उसकी तबीयत

और

न हो जाये कहीं  उससे,

 दूर मेरी  बदली

बना रहे साया, उसका रहते दम तक

 रहता रहूँ छत्रछाया में उसकी

माँ  अब अशक्त, निरीह  परेशान  सी लगती है

फिर भी माँ, बहुत अच्छी लगती है।

POEM 2

रिपोर्ट

आया था विभाग में

करने को मैं काम

उलझ गया रिपोर्टों में

शीत, ग्रीष्म हर याम

तरह-तरह के प्रारूप में

भरता वही सामान

 विभिन्न तोड़ों में गा रहा

जैसे शास्त्रीय संगीत की तान

ऊपर से नीचे सभी

लगे हुए  हैं इस कार्य में

फिर भी निकल ही आती है

चूक कोई न कोई इसमें

देर यदि हो जाये कभी

किसी रिपोर्ट  के प्रेषण में

मच जाता हड़कम्प सारे में

ज्यों आई हो सुनामी प्रशांत में

लगते हैं सेवानिवृत्त,

मोटे-मोटे रिलैक्स से

किया अन्वेषण तो पाया यही

कि हो गए हैं मुक्त रिपोर्टों से

सो खाया पीया लगता है

नहीं तनाव कोई रिपोर्टों का,

सो ब्लडप्रैशर नॉर्मल रहता है

शुगर भी अब कंट्रोल में रहती है

सो चेहरा स्वतः ही खिलता है

जब तक थे सेवा में

रहती थी रिपोर्ट  की तलवार टँगी

अब रिपोर्ट का कोई झंझट नहीं

तो मन ख़ुश- ख़ुश सा  रहता है।

जब किया सिंहावलोकन सेवा का

तो मिला ज्ञान कि 80 फ़ीसदी सेवा का

है रिपोर्ट बनाने में ही व्यतीत किया

मिली सराहना भी रिपोर्टों  पर ही

 खाई झाड़ें भी रिपोर्टों  पर ही

अब  समझ मैं पाया कि

आया था  मैं विभाग में

मात्र रिपोर्टें बनाने ही

मिली तनख़्वाह अच्छी ख़ासी

बना लिया बड़ा बंगला,

ले ली लग्ज़री गाड़ी भी

बच्चे भी सब सैट हो गये

पत्नी के बन गए गहने भी

अब ये सब कैसे हो पाता

जो न रिपोर्ट का प्रावधान होता ?

नौकरी भी कैसे मिल पाती

शादी भी तब कैसे होती ?

घर भी कैसे बस पाता ?

 है नमन सभी  रिपोर्टों का

बिन उनके  कुछ न हो पाता

लगता है बनाऊँ मूरत इक,

नाम रखूँ रिपोर्ट माता

करूँ धूप दीप से आरती मैं

निश दिन जपूँ रिपोर्ट माता।

POEM 3

ना भूलें

तुम भूलो, मैं याद दिलाऊँ

मैं भूलूँ, तुम याद दिलाओ

वो दिन, वो मंज़र, वो समां,

मिले थे जब हम पहली बार

चले थे जहाँ से साथ-साथ

खाकर क़समें,

निभाने की सदा साथ

अपना कर  पूर्णतः,

एक दूसरे को,

करके एकाकार अस्तित्व को

दो से होकर 'एक'

हुए थे पूर्ण

वो क्षण, वो पल, वो समय

न भूलने पाये कभी

कभी आपाधापी में समय की

परेशानियों में जीवन की

झल्ला जाऊँ मैं यदि

तो

दिला कर याद, उन क्षणों की,

देखा था जब तुम्हें पहली बार

कर देना पुनः ऊर्जस्वित, मुझे

हाँ मैं भी करूँगा ऐसा ही

जीवन नहीं रहता,

सदा एकसा ही

आते हैं उतार चढ़ाव पड़ाव

भुला देते हैं जो जीवन का रस

कर देते हैं परेशां, उद्वेलित, निराश भी

उन क्षणों में, उन क्षणों की

दिला कर याद तुम

या

हम दोनों ही

एक दूसरे को

कर देंगे प्रफुल्लित, ऊर्जस्वित

हाँ तो फिर तय रहा

कि

यदि तुम भूलो तो मैं याद दिलाऊँ

मैं भूलूँ, तुम याद दिलाओ।

 

 

 

 

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